भारतीय मानस ने शिव, शक्ति और श्रीकृष्ण के विभिन्न रूपों को बहुविध लोकचित्र शैलियों में चित्रांकित किया है । भारतीय ज्ञान परम्परा में तीनों ही परम्पराओं के आख्यान मौजूद हैं, जिन्हें आधार बनाते हुए समग्रता में चित्र माध्यम में अभिव्यक्त करने का यत्न इस संग्रहालय के निर्माण में हुआ है । सम्पूर्ण भारत में तीनों ही परम्पराओं के विभिन्न रूपों का अंकन अत्यन्त भावगम्य रहा है। संग्रहालय में इन परम्पराओं को पारम्परिक चित्रांकन शैलियों में सृजन कराकर प्रदर्षित किया गया है ।
देश के विभिन्न प्रदेशों में शिव, शक्ति और श्रीकृष्ण के स्वरूपों के श्रृंगार के लिये विभिन्न अंलकरणों रंगभूषा, वेषभूषा का उपयोग किया जाता है । भारतीय संस्कृति की लोक परम्परा के लोकनाट्य, नृत्य तथा अन्य मंचीय प्रस्तुतियों में भी शिव, शक्ति और श्रीकृष्ण के अलंकरणों की विविधता की समृद्ध परम्परा है । इन परम्पराओं की झाकियों का सृजन कर अलंकरणों के महात्म्य को प्रदर्शित किया गया है ।
देश में विविध कला अनुशासनों यथा नृत्य, नाट्य, शिल्प आदि में शिव, शक्ति और श्रीकृष्ण के विभिन्न स्वरूपों की कल्पना और सर्जना की गई है, जिनसे भारतीय जीवन मूल्य का निर्धारण हुआ है । इस भावात्मक पक्ष को केन्द्र में रखकर शिल्पों का निर्माण कराकर प्रदर्शित किया गया है ।
सृष्टि के पालक शिव और पौराणिक कथाओं ने भारतीय लोक मानस को गहरे तक प्रभावित तथा संस्कारित किया है । भारतीय जनमानस ने दैनंदिन गतिविधियों से लेकर ईश्वर के अवतारों, लोक कथाओं, कहावतों, काव्यों और आख्यानों को विविध माध्यमों में सृजित किया है, जिनमें चित्रांकन और शिल्पांकन महत्वपूर्ण विधा के रूप में सर्वमान्य है । देश के प्रायः सभी राज्यों में शिव के आख्यानों को विभिन्न कलारूपों में अभिव्यक्त किया जाता है । जिस प्रकार भारतीय कला परम्परा का एक संदर्भ उसकी सांस्कृतिक परम्परा, आराध्य, आस्था, अनुष्ठान, स्वरूप, पूजा विधियों पर्व-त्योहारों और लोक विश्वासों से जुड़ता है, उसी प्रकार स्वयं संस्कृति परम्परा का एक संदर्भ भारतीय धर्म साधना और देवलोक के साथ धर्म से जुड़ा है । कला रचना के कुछ विषय और रूप इन धार्मिक आस्थाओं से होते हुए धीरे-धीरे सदियों में एक सांस्कृतिक परम्परा और फिर एक कला रचना के रूप में विकसित हुए हैं । ‘शिव’ की परिकल्पना और स्वरूप को भारतीय ज्ञान और साधना में विशद रूप से परिभाषित किया गया है । इसी प्रकार ‘शिव’ को केन्द्र में रख विशेष धार्मिक आध्यात्मिक सम्प्रदायों का निर्माण और तत्वदर्शन की प्रस्तावनाएँ, साधना पद्धतियाँ विशेष तीर्थ स्थल आदि निर्मित हुए । सदियों में इसके साथ एक सांस्कृतिक परम्परा भी बनती और जुड़ती गयी । हमारे देश की कला परम्परा ने इस सांस्कृतिक आधार को कला के प्रत्येक माध्यम में रचा है ।
शिव से संबंधित उनके सभी स्वरूपों के शिल्प और मूर्ति रचना, शिव के पौराणिक आख्यानों के चित्र और विभिन्न मंचन शैलियों में इन प्रसंगों की प्रस्तुति आदि से यह कला परम्परा स्वयं को समृद्ध करती है ।
भारतीय देवलोक में शक्ति का निरूपण और व्याख्या, विशद रूप से भारतीय ज्ञान और साधना परम्परा के साथ पौराणिक आख्यानों और सूत्र, संहिता तथा स्त्रोत साहित्य में की गई है । जगत की मूल आधार शक्ति, मातृ स्वरूप में भारतीय लोक की आस्था और अनुष्ठान का केन्द्र है । शक्ति की परिकल्पना और स्वरूप ‘शिव’ के साथ संयुक्त है । वैदिक और आगमिक साधना और दर्शन में वे युगपत और केन्द्रीय है । तांत्रिक आगमिक साधना में भारत में विभिन्न सम्प्रदाय रहे है । सभी सम्प्रदायों की अपनी विशिष्ट साधना पद्धति और वैचारिक पृष्ठभूमि है । भारतीय चिन्तन में जगत सृष्टि को शिव-शक्ति की लीला अथवा शक्ति और ‘शून्य की समष्टि’ कहा गया है ।
प्रकृति के ‘परा’ और ‘अपरा’ रूप, शक्ति के ही दो अभिव्यक्तियाँ माने गये हैं । गुणात्मक और तत्वात्मक प्रकृति, दिक् और काल के आयामों में प्राणमयी होकर समस्त जगत के जीवन और प्राण का आधार है, जबकि तत्वातीत और गुणातीत प्रकृति शुद्ध ‘परा’ भगवती शक्ति मानी गयी है । इन दोनों ही रूपों के साथ शक्ति का स्वरूप स्थिति समग्रता में समझी जा सकती है । देश के प्रमुख शक्तिपीठ शाक्त साधकों और लोक समाज के साधना और आस्था स्थल हैं ।
भारतीय कला परम्परा ने शक्ति के विभिन्न रूपों का समृद्ध कला अंकन और शिल्प रचना संभव की है, अनेक पौराणिक प्रसंगों के साथ ‘दुर्गा सप्तसती’ और ‘देवी’ भागवत पुराण के अनेक प्रसंगों की मंचीय प्रस्तुतियाँ निर्मित की हैं । चित्र, शिल्प, आख्यान तथा प्रदर्शन परम्पराओं के साथ जुड़ी कला रचनाओं को इस संग्रहालय में प्रदर्शित किया गया है ।
लीला पुरूषोत्तम श्रीकृष्ण की पौराणिक कथाओं ने भारतीय लोक मानस को गहरे तक प्रभावित तथा संस्कारिक किया है । श्रीकृष्ण की चौंसठ कलाओं और चौदह विद्याओं से मनुष्य का किसी न किसी रूप में सम्बन्ध रहा है । गीता के कर्म-सिद्धान्त की दार्शनिक पीठिका की भूमिका जीवन को समझने में महत्ववपूर्ण है । भारतीय जनमानस ने दैनंदिन गतिविधियों से लेकर ईश्वर के अवतारों, लोक कथाओं, कहावतों, काव्यों और आख्यानों को विविध माध्यमों में सृजित किया है, जिनमें चित्रांकन और शिल्पांकन महत्वपूर्ण विधा के रूप में सर्वमान्य है ।
श्रीकृष्ण के चरित को भारतीय आख्यान परम्परा में वर्णित अनुसार लोक चित्रांकन शैलियों में प्रदर्शित किया गया है । श्रीकृष्णलीला मंचन की विविध शैलियों द्वारा उपयोग किये जाने वाले श्रृंगार, वेशभूषा, आभूषण, मुकुट आदि सामग्रियों को भी प्रदर्शित किया गया है ।
हमारे संस्कार, संस्कृति और मूल्य निर्मिति में मौखिक रूपों का केन्द्रीय योगदान है। भारतीय संस्कृति में संस्कार, मूल्य एवं ज्ञान के वैविध्य को संरक्षित करने और पीढ़ी दर पीढ़ी परम्पराओं को हस्तंतरित करने तथा परम्परा के कूट रहस्यों को समझने की दृष्टि से आख्यानों की रचना की गयी है। देश के विभिन्न प्रान्तों में मौखिक गीत, कथाओं और गाथाओं की समृद्ध परम्परा है। इस परम्परा में शिव, शक्ति और श्रीकृष्ण सम्बन्धी अवधारणा के साहित्य भी बड़ी मात्रा में उपलब्ध हैं। इन सभी वाचिक साहित्यों का संकलन और प्रकाशन किया कराया जायेगा। देशभर में प्रकाशित इन परम्पराओं से सम्बन्धित साहित्य को संकलित कर पुस्तकालय की स्थापना की गई है।